तिच्या दगडी डोळ्यात तिचं विस्कटलेलं बालपण स्पष्ट दिसत होतं मला. मी तिला विचारलं,’ इस बस्ती(लाल दिव्याची वस्ती) मे कैसे आ गई आप ?” तिने तिच्या हातातली औषधाची चुरगळलेली चिठ्ठी टेबलवर ठेवली आणि दुसऱ्या हाताने, चिठ्ठी वरच्या वळ्या पुसण्याचा प्रयत्न करू लागली आणि पुढे म्हणाली, “दीदी, पता नहीं कैसे आ गयी.
खेती मे मजदूरी करते थे मेरे मां, बाबा. कभी रोटी मिलती थी तो कभी नहीं मिलती थी. कर्जा बहोत था मेरे बाबा के सिर पर. दो बहने और हैं मेरे से बडी.एक भाई हैं छोटा. हमारे गांव मे से लडकिया ऐसे ही गायब हो जाती थी दीदी. पता ही नहीं लगता था कैसे. एक सफारी कपडे पहनकर कोई चाचा आते थे बाबा से मिलने. एक दिन उन्होंने एक सफेद लिफाफा दिया बाबा को और मेरे पास आकर बोले, “कल बंबई जायेंगे तैयार रहना”.
मैने बाबा की तरफ देखा तो वो रोने लगे थे. मैने बाबा से पूछां, “बंबई क्यू जा रहे हैं हम ?” तो वो और भी रोने लगे. कुछ बोले नहीं. दुसरे दिन मां ने मेरे कपडे एक थैली मे भर दिये फिर वो भी रोने लगी. कोई ना बता रहा था क्या हूआ है. मैने मां से पूछा, “मेरे कपडे क्यू भरे हैं थैली मे ?” मां ने सिर पर हात फेरा और बोली, “अपना ध्यान रखना”. ये बोलकर मां ने ओढणी ओढ दी थी सिर पर. जानवरो की दुनिया में भेज रही थी और ध्यान रखने को भी बोल रही थी. तब ना समझ आ रहा था कुछ भी. मैने अपना स्कूल का बस्ता टांगा था पीठ पर. लेकीन उस दिन के बाद कभी स्कूल ना जा सकी मै”.
विस्कटलेली औषधाची चिठ्ठी ती सारखी हाताने नीट करत होती. आणि माझ्या कडे बघत म्हणाली, “दीदी, कोई पाप ना करो फिर भी नरक मिल जाता हैं क्या ?” माझ्या कडे पण फक्त प्रश्र्च होते. मी म्हणाले, “लेकीन, ये तो नागपूर हैं. यहां कब आयी आप”. तिने लांब श्वास घेतला आणि म्हणाली, “पता नहीं दीदी. घर से निकली उस चाचा के साथ, पीठ पर बस्ता था और हात मे कपडो वाली थैली थी. मां, बाबा सीर पकडकर खूब रो रहे थें. उसके बाद, किसी गाडी मे बिठाया था उस चाचा ने मुझे. गाडी मे बैठने बाद पुरी सब्जी खाने को दी. फिर नही पता क्या हूआ.
बस्ता और मां ने ओढनी ओढकर दीं थी जो दोनो ही गुम हो गये. फिर पता भी ना चला की शहर कौन्सा हैं और बस्ती कौंसी हैं, बस आदमी लोग बदलते थे तो कभी खोली बदलती थी. इस बस्ती मे आई तब बहोत बिमार थी. बच्चेदानी खराब हो गयी थी. बहोत बुखार रहता था.
फिर नानी मुझे अस्पताल ले गयी. वहां कोई ऑपरेशन हूआ था मेरा. बारह साल की होंगी जब मैं अस्पताल मे भर्ती थी तब, बाजू की खाट पर एक औरत को दुसरा बच्चा हुआ था. उसकी एक मेरे जितनी लाडकी भी थी. उस लडकी के पास नीली आँखो वाली गुडिया थी, वो मेरे पास बैठकर खेलती थी मेरे साथ. मै गुडीया के बालो की चुटिया बना रही थी, तब उस लडकी की दादीने उसकी मां से कहा था,” इतनी छोटी बच्ची की बच्चेदानी निकाल दी न जाने क्या हुआ था इसको”. मै खुद बच्ची थी, मेरे मे बच्चेदानी थी ये बच्चेदानी निकलने के बाद मुझे पता चला.
उसके बाद नानी खाना नहीं देती थी. खाली सुबह नाश्ता देती थी. मोटी हो जाएगी बोलती थी. फिर कमजोर हो गयी बहोत, लेकीन फिर भी जी गयी.” हे सगळं सांगताना तिचे हात एक सारखे त्या औषधाच्या चिठ्ठी वर फिरत होते. परत ते उध्वस्त बालपण आठवताना अस्वस्थ होत होती ती.
मी विषय बदलण्याचा प्रयत्न केला पण कदाचित तिला बोलायचं होतं सगळं. तिचा आवाज कधी भारी झाला नाही, की डोळ्यात पाणी ही आलं नाही. दगडी झाल्या होत्या सगळ्या भावना आणि आठवणी देखील.
अशी ही लाल दिव्याची वस्ती, जिथे आई आणि मुलं दोघांचं ही बालपण भरकटलेलं होतं आणि आहे या विस्कटलेल्या बालपणाची घडी बसावी. यांच्या ही डोळ्यातलं निरागस स्वप्न पूर्ण व्हावं.

– लेखन : डॉ.राणी खेडीकर, बाल मानस तज्ञा, मुंबई.
– संपादन : देवेंद्र भुजबळ 9869484800